Thursday, August 6, 2009

पिपासा अन्तर की

तप रहा सूरज गगन में, धरती सारी जल रहीl

दूर तडफे मेघ दर्शक, निकट आ सकता नहीं ll

सूर्य जलता जल रहा,सागर से बूंदें आ रही l

जल रहे सारे यहाँ पर,क्यों जल रहे पता नहीं ll

सोच धरती जीव कर्मा, विचारों की हवा रही l

धरती जलती जीव जलता, हवा में शीतलता नहीं ll

सागर है मन, मेघ इंसान, दोनों की दुरी बढ़ रही l

बढ़ रहा अभिमान सूरज, प्रेम की बूंदें नहीं ll

सत्संग का वृक्ष ढूंढे "ह्रदय", पिपासा अन्तर की बढ़ l

ख़ुद को खो कर, ख़ुद को है पाना, बढ़ रहा अब तम नहीं ll